G-GE9JD7T865 मैं क्या चाहता हूँ?

 मैं क्या चाहता हूँ?




मैं चाहता हूँ एक ठहराव

एक ऐसा पड़ाव

जहां से और आगे कुछ भी न हो


एक छोटी सी पहाड़ी

पहाड़ी के उस पार एक घाटी

घाटी में एक छोटा सा घर

एक चारपाई एक मेज

ढेर सारी किताबें और खाली पन्ने


सुकून से भरा शांत मन

चाय की प्याली और हाथ मे कलम

दीवारों और पन्नों पर कुंवारी कविताएं


उसकी गोद मे सर रखकर

घण्टों की सुकून भरी 

बिना पाबन्दी की नींद


लेकिन मैं ये जानता हूँ

ये मुझे नहीं मिलने वाला



क्योंकि


इससे पहले की मैं जीवन मे ये सब चुनता

मुझे पागलपन ने चुन लिया 


शोषण के अंश दिखते ही

मेरे अंदर का अम्बेडकर जागता है


दमनकारी लाठियों को इठलाता देख

मैं अपने अंदर के भगत सिंह को चुप नहीं करा पाता


मैं जब देखता हूँ दंगे में इंसानियत को मरते हुए

मेरे अंदर का गांधी बोलने लगता है


जब पढ़ता हूँ दो लोगों ने नदी में कूद कर जान दे दी

मेरा मन चीखता है कि किसके भरोसे छोड़ गए वो

इस समाज को मर्यादा के नाम पर बलि वेदी बनाने के लिए


जब खबर सुनता हूँ 

किसी के बलात्कार की

मेरे दिमाग मे मंटो की कहानियों के

किरदार चिखते हैं



मुझे वो हर हाथ खुद के महसूस होते हैं

जो पितृसत्ता के नशे में 

किसी औरत पर उठते है


मैं हर दिन हर पल 

अपने अंदर की पितृसत्ता

कुरेद कुरेद कर निकालता हूँ



मैं यह बर्दाश्त नहीं कर पाता कि

मै परोक्ष रूप से

बीसियों गुलामों की गुलामी का जिम्मेदार हूँ



मैं ऐसे सैकड़ो वजहों से

रोज जख्मी होता हूँ

रोज खुद को मरहम लगाता हूँ

अपनी बेबसी बेचैनी को

किताबों के ढेर में छुपाता हूँ

बस इस उम्मीद से कि

एक दिन कुछ ऐसा होगा 

जो मुझे इन भावों से बाहर निकालेगा।



_कशिश बागी











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