G-GE9JD7T865 13 April 1919

 13 April 1919 


जलियांवाला बाग हत्याकांड। 


भारत के इतिहास में ये तारीख इस बात का प्रतीक है कि जो कुछ भी हमें आज हासिल है वो उन तमाम लोगों की कर्जदार है। सरकार तब भी था  जैसे आज है, कानून पर कानून बनाये जाते थे आम जनता की भलाई के लिए । लेकिन जमीनी हकीकत क्या थी? क्या जनता का भला हो जाता था? नहीं , बिल्कुल नहीं। ब्रिटेन की महारानी आती थी लोग शिकायतों का अंबार लगा देते । वो जाती थी और अपने अफसरों से सवालात करती और फिर कमिटियां बन जाती। फलाना कमिटी , ढिमकाना कमिटी। लम्बे लम्बे दावे और असल हकीकत जस के तस। तब भी कुछ लोग थे जो अंग्रेजों से काफी खुश थे। उनको सरपट दौड़ती ट्रेन, ठंडी आइसक्रीम,दूर तक बात करने वाला टेलीफोन और परदे पर चलता हुआ सिनेमा पसन्द था। वो ये देख कर - पाकर अंग्रेजो के एहसान के तले खुद को दबाए हुए थे। मुट्ठी भर लोगों की तरक्की उन्हें हिंदुस्तान का सँवरता भविष्य नजर आता था। लेकिन तब भी ऐसे लोग थे जो इन सबके सामने अपने आत्मसम्मान और अधिकार के लिए लड़ रहे थे ,,,, बोल रहे थे। बिना डरे , न सिर्फ अपने लिए बल्कि पूरे समाज के लिए , पूरे देश के लिए। जो बोलते उनको देशद्रोही, उपद्रवी और आतंकी बोला जाता था। बस्तियां तक जला दी जाती थी, घर गिरा दिए जाते थे जिस इलाके से कोई बोलना शुरू कर देता था।


आज लोग बदल गए हैं और सरकारे बदल गई हैं। लेकिन हालात और कहानी जस की तस बनी हुई है।


जलियांवाला बाग का किस्सा हो या ऐसा कोई और किस्सा,,,हमें याद रखना चाहिए। जिसको न पता हो उसे बताना चाहिए। पीछे क्या हुआ है ये लोगो को पता रहना चाहिए। लेकिन सिर्फ तारीखी  सामान्य ज्ञान के रूप में नहीं बल्कि एक सीख के रूप में। वो ये है कि ,,, हमने बोलने के लिए अपनी जाने तक दी है तुम बस इस वजह से मत चुप हो जाना कि बोलने पर तुम्हे गद्दार कहा जायेगा, पाकिस्तान जाने को बोला जाएगा,,, या देशद्रोही बोला जाएगा। 


जलियांवाला बाग हत्याकांड का बदला लेने के लिए जब उधम सिंह ने डायर को गोली मार दी थी तब उनके ट्रायल के दौरान मीडिया में खूब लिखा गया। उस समय लन्दन का एक अखबार था "द टाइम्स" वो उधम सिंह के शब्दो को ज्यों का त्यों छाप रहा था। वो अंग्रेजी दावों के खिलाफ ये लिख पा रहा था कि उधम सिंह ने आतंक फैलाने के लिए गोली नहीं मारी है बल्कि जलियांवाला बाग हत्यकांड के बदले के लिए मारी है। वो कोई उग्रवादी नही क्रांतिकारी है। उस अखबार के पास अपने ही सरकार के खिलाफ सच लिखने का साहस था। क्या आज अखबारें सच लिख पा रही हैं? नहीं न। 


तो ये तमाम तारीखें एक रास्ता दिखाती है और याद दिलाने के लिए है कि कैसे हक के लिए लड़ना जरूरी है,,, बोलना जरूरी है।


Kashish Bagi

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